आज नदी घर से निकलते ही चौखट पर मिलती है,
मगर उसमें कश्ती न कागज़ की न लक्कड़ की एक भी दिखती है,
मिटटी तो आज भी घर के चौखट पर बिखरी है,
पर टिप टिप की बूँदें से कोई सौंधी खुशबू आज क्यूँ नहीं उभरती है.
आज घर के कोने कोने तक रोशिनी पहुचती है,
पर सूरज की एक किरण भी मुझ तक क्यूँ नहीं पहुचती है,
रात को आज भी वोह जीव किट किट की आवाजें निकालते है,
पर प्रातः के चार बजे भी क्यूँ न किट किट न कोयल की गूँज सुनायी पड़ती है.
आज घर से दूर बहुत दूर जाने के लिए मानव के पास कई साधन है,
पर घर से चार कदम दूर रहने वाले मानव से नहीं कोई संबोधन है,
दूरियां दो घरों में आज चीटी के टीलों से भी छोटी है,
पर उन्ही घरवालों को बाटने वाली दरवाजें दो-चार गुना मोटी है.
आज अपनों तक पहुचने और उनसे बाते करने के अमूल्य साधन है,
पर वोह प्यारी सी माँ और पूज्य पिताश्री तक ना पहुचने का हर एक बेटे के पास कोई कारण है,
प्यार तो आज भी उतना हर माँ अपने बेटे से करती है,
पर बेटे की राह देख देख कर वोह बूढी आखें क्यूँ थक जाती है.
आज इंसान सूरज की किरणों से रातों को दिए जलाते है,
पर भरी दोपहरी में भी सूरज की एक भी किरण को अन्दर नहीं आने देता है,
आकाश तो आज भी दिन को नीलिमा में और शाम को लालिमा में मदहोश हो जाता है,
पर ये आँखें हज़ारों टिमटिमाती हुई ख्वाहिशों में से एक भी ढूंढ नहीं पाते है.