Tuesday, September 13, 2011

Aaj ki awaragi

आज नदी घर से निकलते ही चौखट पर मिलती है,
मगर उसमें कश्ती न कागज़ की न लक्कड़ की एक भी दिखती है,
मिटटी तो आज भी घर के चौखट पर बिखरी है,
पर टिप टिप की बूँदें से कोई सौंधी खुशबू आज क्यूँ नहीं उभरती है.

आज घर के कोने कोने तक रोशिनी पहुचती है,
पर सूरज की एक किरण भी मुझ तक क्यूँ नहीं पहुचती है,
रात को आज भी वोह जीव किट किट की आवाजें निकालते है,
पर प्रातः के चार बजे भी क्यूँ न किट किट न कोयल की गूँज सुनायी पड़ती है.

आज घर से दूर बहुत दूर जाने के लिए मानव के पास कई साधन है,
पर घर से चार कदम दूर रहने वाले मानव से नहीं कोई संबोधन है,  
दूरियां दो घरों में आज चीटी के टीलों से भी छोटी है,
पर उन्ही घरवालों  को बाटने वाली दरवाजें दो-चार गुना मोटी है.

आज अपनों तक पहुचने और उनसे बाते करने के अमूल्य साधन है,
पर वोह प्यारी सी माँ और पूज्य पिताश्री तक ना पहुचने का हर एक बेटे के पास कोई कारण है,
प्यार तो आज भी उतना हर माँ अपने बेटे से करती है,
पर बेटे की राह देख देख कर वोह बूढी आखें क्यूँ थक जाती है.

आज इंसान सूरज की किरणों से रातों को दिए जलाते है,
पर भरी दोपहरी में भी सूरज की एक भी किरण को अन्दर नहीं आने देता है,
आकाश तो आज भी दिन को नीलिमा में और शाम को लालिमा में मदहोश हो जाता है,
पर ये आँखें हज़ारों टिमटिमाती हुई ख्वाहिशों में से एक भी ढूंढ नहीं पाते है.

Friday, April 15, 2011

Ek Nazm

जो निकले न दिल से तो फिर बात ही क्या है,
जो पहुचे न दिल तक तो मिया ग़ालिब ही क्या है.

जो पसंद आये बस ये दो लफ्ज़ तो न आना,
जो छु जाये अगर दिल को ये नज़्म तो आना.

की बैठे है हर रोज़ की तरह युही तनहा हम,
की जी रहे है हर रोज़ की तरह बिना पिए युही हम.

एहन दिन में अँधेरे और रातों में उजाले है,
एहन धुंध में तारे और गर्दिश में किनारे है.

जो तुमको हो वक़्त का न होश और न उम्र का ठिकाना,
जो तुमको हो मिलने का जोश और गम का तराना.

तो आ जाओ मिल कर एक पल प्यार भरा बिता ले,
तो आ इस पल में उम्र जो निकले उसे बचा ले.

मेरे दिल से जो निकले अपने दिल में समा लो,
मेरे यार आ मिल ले अपने हर एक फिक्र मिटा लो.

Monday, November 29, 2010

Bas yuhi muskurate hai

अक्सर चलते जब हम तनहा अकेले,
सर्द रातों की बाँहों में सिमटते सँभालते,
ना जाने किस सोच में डूब जाते है,
और किसकी आरज़ू में मुस्कुराते है.
उन गलियों से फिर मुड़ते है,
और किसी मैकश सी भीड़ में खो जाते है.

लेकिन फिर वोह वक़्त भी आता है,
जब आलम एक वीरा सा आता है,
उस तनहा से वीरान से आलम में,
किसी कशिश से बोझल बाँहों ने,
जब रूखे से नैनों की भाषा समझी है,
तब हलकी हलकी सी एक गूँज सुनायी है.

नि रे गा, रे गा माँ, सा रेगा माँ रेगानि,
गा माँ प्, माँ प् ध, प् निप् ध रेसानि,

के साथ उसके दो बोलों ने - रात के काले सायों में,
सुनहरी यादों के तरानों में,
दिल के तारों को जब छेदा है,
तब न जाने क्यूँ बस युही मुस्कुराते है.